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30 Jul 2017 · 1 min read

दायरा…

फुँहारे पड़ी अचानक
आँखों का दर्द समझूँ
या बारिश का पानी!
कह दूँ मन की व्यथा
आज फिर तुमसे
उबरने को समझूँ
या उलझने को ठानू!
देख फिर से उलझने बढ़ी
प्रेम और प्रेम का लहजा
खुद को समेट लू!
या उसी को सच मानू!
प्रगतिशीलता का दायरा
इस कदर तो व्यापक नहीं
भूल गयी अपनी संस्कृति
और सभ्यता के पहलू!
आखिर क्या समझूँ!
आँखों से रिसता
या फिर आँखों में रुकता पानी!
.
शालिनी साहू
ऊँचाहार, रायबरेली(उ0प्र0)

Language: Hindi
386 Views
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