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13 Mar 2017 · 1 min read

“असमंजस “(समसामयिक कविता)

“असमंजस “(समसामयिक कविता)

उत्क्षिप्त,कुण्ठित सी हालत मेरी
कैसें करूँ वकालत तेरी
तुच्छ,अंतिम पंक्ति का मैं सेवक
कैसें बनूँ मैं तेरा खेवट
मन में मेरे हैं असमंजस
कैसें करूँ मैं सामन्जस।

सच कहूँ तो तु बचता हैं
झूठ कहूँ तो मैं
स्थिति एेसी विषम बनी हैं
एक का मरना तय
मन विचलित मैं क्या करूँ
खुद बचकर तुझे मारूँ
या,तुझे बचाकर मैं मरूँ
मन में मेरे हैं असमंजस
कैसे करूँ मैं सामन्जस।

स्वार्थ स्वार्थ उचित हैं मेरा
पर,भरा पूरा परिवार हैं तेरा
स्वार्थ मैं अपना छोड़ न सकता
तुझे भी बेबस छोड़ न सकता स्वार्थ छोडू बहिर्मन कोसे
तुझे छोडू अन्तर्मन कोसे
मन में मेरे हैं असमंजस
कैसें करूँ मैं सामन्जस।
रामप्रसाद लिल्हारे
“मीना “

Language: Hindi
1945 Views
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