विभूता
क्या मांगू मैं इस सृष्टि से ,क्या मांगू परमेश्वर से
जीवन का उपहार दिया , उस आलौकिक ब्रह्मेश्वर से।
हर क्षण भरता श्वास नई , मेरे रुधिर के कण कण में
नित्य जिताकर लाता जो, जीवन और मृत्यु के रण में।
क्या मांगू उस निराकार से, आदि ब्रह्म चैतन्य से
विभुता में जिसकी ब्रह्मांड निहित, अमर अगोचर अनन्य से ।
जलधि का विशाल गर्जन, सरिता कल कल निर्झर झरणी
भूधर और गहन कानन से , आल्हादित मंजुल धरणी ।
लालिमा नित भोर रवि की , टिमटिम यामिनी नक्षत्र छवि
स्वर लहरी मंद बयार पवन की, राग यमन, बहार, भैरवी ।
बेल लता पल्लवित कुसुम , देख चक्षु खिल खिल जाते
सुगंधि पुष्पांड की बिखेर चहुं, तरुवर लदे लदे इतराते ।
धवल तुषार श्रृंगार करे , बिछी दूब के हरित पटल का
नीम बरगद पीपल मानो, संबल वसुधा के कर तल का ।
नीलाभ में रंग उड़ाते , खग दल सुरम्य रंजन से
आमोद मयूर के नर्तन से , गीत भ्रमर की गुंजन से ।
सांझ का उल्लास हर्ष, दिवा निशा का मधुर मिलन
देवाराधन घंटा ध्वनि , आरती थाल प्रदीप्त निरांजन ।
निद्रा दुबक रजनी के अंचल में , दृश्य रम्य अनेकों गढ़ती
मुख पर स्मित ,भाव नेह के ,अलके बिखर वृत्त सब कहती ।
वैभव मुझे मिला बिन मांगे , विधाता के अक्षत कर से
अब क्या शेष करूं कामना, सच्चिदानंद अखिलेश्वर ‘से ।
रचयिता
शेखर देशमुख
J 1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू 2,
सेक्टर 78, नोएडा (उ प्र)