रिश्ता
तुम्हारे साथ गुजरे एक एक लम्हे का
हिसाब तो नही है मेरे पास।
जिंदगी इस तरह सहेज कर तो नही रखी मैंने।
किसी रिश्तेदार के मकान में
सोफे पर बैठी एक शर्मीली सी लड़की
ने पहली बार सकुचाते हुए पूछा था
आपको गुस्सा तो नही आता न?
बात वहीं से शुरू हुई थी।
तुम्हारी झुकती हुई पलकों और साड़ी के कोने को उंगलियों में लपेटे हुए
वो पल अब भी वहीं रुका हुआ है।
जिंदगी के इस पड़ाव पर आकर,
जब बच्चे कद निकाल कर खड़े हो गए हैं।
अपने इर्द गिर्द बिखरे लम्हों में
एक रिश्ता अपनी तमाम खूबसूरती के साथ आज भी
कायम है।
अपनी पेशानी पर छलके पसीने की
बूंदों को पल्लू से पोंछती
किचन से आती एक तेज, झुँझलाती आवाज
कि
खाना कब का लग चुका है
अब TV देखना बन्द कीजिये।
ये आवाज़ धीरे धीरे तब्दील होकर
फिर धीमे से वहीं लौट जाती है।
आपको गुस्सा तो नही आता न?
और मैं मुस्कुराते हुए खाने की मेज की
ओर बढ़ जाता हूँ।
तुम्हारे और मेरे बीच के अनगिनत
लम्हे इसी तरह कुलाचें मार कर
दृष्टिपटल पर आकर ठहरते
और फिर दौड़ जाते है
अतीत की ओर।
ये साझा लम्हें तुम्हारे और
मेरे पास
महफूज है किसी कोने में।
अतीत और वर्तमान की दूरियों
के बीच।