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1 May 2018 · 1 min read

भोर हुए वो जाती है

भोर हुए वो जाती है सूनी उजाड़ गलियों से
मजदूरिन थी वो नहीं थी कसबिन
जाती थी भोर मजदूरी के लिए
नहीं आ जाये उसकी जगह कोई ओर
भूखे ना रह जाये उसके नन्हें नन्हे बच्चे
एक मर्तबा मालिक ने उसे बुलाया
प्राइवेट काम के लिए अलभोर
पहुंची किया हॉल में बंद
हाल बेहाल हो किया हाल पे गोर
न कुछ बोली ना किया रोध-प्रतिरोध
बिछी जिंदा लाश उस रोज
मजबूरी वश मजदूरी लायक ना रही
करना पड़ा वो धंधा ना चाहते हुए
जिसे कभी भी करना नहीं चाहती थी
कल की मजदूरिन बनी आज
थी कसबिन ढीले बंध उसके
एक अतृप्त प्यास लिए दूसरों की
प्यास बुझाने को भोर हुए वह जाती है ।।
मधुप बैरागी

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