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11 Feb 2018 · 1 min read

हलाहल राग

न नवचेतना जाग लिखूँगा न बलिदानी त्याग लिखूँगा,
है मेरा मन ब्यथित मैं आज, “हलाहल राग” लिखूँगा।

लुटेरे है जो बैठे बीच हमारे, सफेदपोशों के भेषो में,
करें वो पथ भृमित सबको, फँसा कर आत्मक्लेशो में,
सभी उन स्वेत बकों को तो, मैं काला काँग लिखूँगा।
है मेरा मन ब्यथित मैं आज, “हलाहल राग” लिखूँगा।

नही वो धर्म का धर्मी, है वो बस पाखण्डी, बेशर्मी,
करे जयघोष दुश्मन का, वो द्रोही बदजात कुकर्मी,
जहाँ जन्मे, जहाँ खाएं, वही जब बिष बेल फैलाये,
नही वो जात आदम का, उसे बिषैला नाग लिखूँगा।

सभी उन स्वेत बकों को तो, मैं काला काँग लिखूँगा।
है मेरा मन ब्यथित मैं आज, “हलाहल राग” लिखूँगा।

कभी जो धर्म आगे कर, कलुषित मन को झलकाएँ,
कभी खुद रार ठाने और, पंक मातृवतन पे छलकाएँ,
कलंकी राष्ट्रद्रोही है वो, न निरापराधी तुम उसे मानो,
समुचित राष्ट्र के हित में, उसे एक भद्दा दाग लिखूँगा।

सभी उन स्वेत बकों को तो, मैं काला काँग लिखूँगा।
है मेरा मन ब्यथित मैं आज, “हलाहल राग” लिखूँगा।

न भाईचारा जो समझे, नही मातृभूमि का ऋण जाने,
देखे अलगावबादी के सपने, बिद्रोहीयो को रब माने,
मिटा दो ज़र्रे जर्रे से लगा कर, आग उनके मंसूबो में,
मरासिम ‘चिद्रूप’ बिदाई का, जला के चिराग लिखूँगा।

सभी उन स्वेत बकों को तो, मैं काला काँग लिखूँगा।
है मेरा मन ब्यथित मैं आज, “हलाहल राग” लिखूँगा।

©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ११/०२/२०१८ )

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