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10 Apr 2017 · 1 min read

ज़िंदगी खत्म

ख़ुदा तेरी कितनी मेहरबानी हम पर,
की शाम को हम बेहोश हो जाते है ,
ज़िंदगी तेरा सारा दिन हम बोझ सहकर ,
शाम को हम तो मदहोश हो जाते है,

सलीखा कोई सीखा दे ज़िंदगी जीने का हमें,
की शाम को हम तो खामोश हो जाते है,
सरहदों पर दम तोड़ देती है ख्वाइशें,
मजबूर तनहा जय हो का नारा लगाते है,

किन परछाइयों की बात करते हो तुम तनहा,
जो सुबह की भीड़ में अपना चेहरा छुपाते है,
घोंसलों के तिनके इकट्ठे करने में ज़िंदगी खत्म,
और घोंसले को बनाने में कितने तिनके टूट जाते है,

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