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10 Apr 2017 · 1 min read

बिखरते बिखरते सँवरने लगी वो

बिखरते – बिखरते सँवरने लगी वो
कि बन कर के खुश्बू महकने लगी वो

नही बस रहा अब मेरी धड़कनों पे
मेरे दिल में ऐसे उतरने लगी वो

कभी जो न आई बुलाने पे मेरे
गली से मेरे अब गुज़रने लगी वो

पिला कर के जामे मुहब्बत को हमको
नशे में मगर खुद बहकने लगी वो

हुई वो दिवानी मुहब्बत में ऐसे
बग़ावत जहां से ही करने लगी वो

नही रोक पाई वो दर्दे जुदाई
मिलन को हमारे मचलने लगी वो

चिरागे तवक्को बुझने लगे जब
शमां बनके फिर खुद ही जलने लगी वो

कभी तोड़ कर दिल चली जो गई थी
मेरे प्यार में फिर निखरने लगी वो

जफ़ा जिसके रग़ रग़ समाया था “प्रीतम”
वफ़ाओं का दामन पकड़ने लगी वो

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