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27 Jan 2017 · 1 min read

रोज़ लिखती हूँ

रोज लिखती हूँ नए छंद नई रुबाई
मन के उद्गार और भीगी हुई तन्हाई
हूँ कलमकार डुबोती हूँ जब भी खुद को
भाव लेती हूँ वही होती जहाँ गहराई!!
राख के ढेर से उठता नहीं देखा है धुँआ
पाट बैठी हूँ दग़ाबाज़ हसरतों का कुँआ
फिर भी छू जाती मुझे यादों की वो पुरवाई
भाव लेती हूँ वही होती जहाँ गहराई!
रोज लिखती हूँ नए छंद नई रुबाई!!
अनन्या “श्री”

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