करवटें लेटा हुआ जमाना
करवटें लेता हुआ ज़माना
करवटें ले रहा ज़माना कुछ इस क़दर,
हाय-हेलो की संस्कृति ने राम को कर दिया ओझल हर पहर।
लोगों के घर आना-जाना अब जैसे रस्में पुरानी हो गई,
संवादों की शैली पर भी समय की मार भारी हो गई।
दो कमरों में सिमट गई है बचपन की पूरी दुनिया,
दादा-दादी, नाना-नानी के स्नेह का अब कौन रखे गुनिया।
ज़रूरत के समय ही होते हैं कुछ शब्दों के आदान-प्रदान,
वरना किसे पड़ी है फिक्र, किसकी कौन सुने अरमान।
मक्का, महेरी, दलिया, रोटी—जहाँ खुशबू थी अपनापन की,
वहाँ फास्ट फूड की चकाचौंध ने जगह ले ली नादानी की।
बदल रहा है दौर, मगर मन कहीं कहता है अब भी भारी,
क्यों भूलते जाते हम रिश्तों की वो गर्माहट प्यारी-प्यारी।
मुकेश शर्मा