निकाह
मुहल्ले के मोड़ पर
एक घर था
जहाँ पहला निकाह,
फिर दूसरा निकाह,
फिर तीसरा निकाह
यूँ बदलते रहे
जैसे बरसात में गीले कपड़े।
एक जनाब थे
पहले ट्रक हाँकते थे,
अब ज़िम्मेदारियाँ
सड़क की धूल की तरह
हवा में उड़ा देते हैं।
एक बेगम थीं
जिन्हें लगा कि
ख़्याल रखने का हक़
किसी और मुस्कान में ज़्यादा है।
सो उधर चल पड़ीं,
जहाँ पहले से ही
रौनक इतनी थी
कि पाँच बच्चों का झूला
दरवाजे पर झूल रहा था।
फिर क्या था
दोनों तरफ़
नए सपने, नए वादे,
और नए-नए रोने की उम्मीदें।
पुराने दस के दस फूल
सरकारी आँगन में छोड़ दिए गए,
जहाँ “ममता” पोस्टर पर मुस्कुराती है
और बच्चों के कपड़े
दूध के पैकेट की तरह
सरकारी ठप्पे से चलते हैं।
इधर जिन जनाबों को
पहले “घर का सरदार” कहा जाता था,
वो भी अब ताज़ा अध्याय खोल चुके हैं
नया रिश्ता, नई परवरिश,
और शायद नए-नए नाम
गली के स्कूल में दर्ज होते हुए मिल जाएँ।
पर हम?
हम कौन होते हैं कहने वाले?
हमारे हिस्से में तो बस
ताली बजाने का अधिकार बचा है
कभी मंच पर,
कभी मुनादी में,
कभी आँकड़ों में।
कोई चाहे जितने रिश्ते बदले,
चाहे जितने पालने झुलाए,
या छोड़ आए
हम तो बस यही कहेंगे
कि दुनिया की आबादी का अंक
हमारी जेब से थोड़ी भरता है!
इसीलिए
जो चलता रहे चलने दो
और बढ़ते हुए बच्चों की भीड़ को
बस गिनती में जोड़ने दो।
आख़िरकार,
हम कौन बोलने वाले?
हम तो बस रहने वाले
एक ऐसे समाज में
जहाँ ज़िम्मेदारियाँ
अक्सर निकाह के कपड़ों की तरह
बार-बार बदल ली जाती हैं।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’