मैंने सीखा है तुमसे, उम्मीदों को संभालना,
मैंने सीखा है तुमसे, उम्मीदों को संभालना,
कोरे कागज़ में छिपे, खामोश शब्दों को उभारना।
वो दर्द जो धुंधला देता है, ज़हन के उजालों को,
उस दर्द की आशिकी में, खुद को संवारना।
वो रातें जो बेचैनियों की, गिरहों को बाँधते हैं,
उन रातों में तेरी ख्वाहिशों के चिराग़ जलाना।
सर्द मौसम की दस्तकें जो, उदासियो को जगाती है,
यादों के लिहाफ ओढ़कर, खोयी ‘मैं’ को पुकारना।
हाँ मैंने सीखा है तुमसे, खामोशियों को सराहना,
बिना बात साथ बैठकर, धड़कनों में उतारना।
वो लम्हे जो, बेरुख़ी की धूल में धँसने को हैं,
उन लम्हों को भी अपनी, पलकों पर सँवारना।
सफर की मुश्किलें जो, थका देती हैं साँसों को,
तुझसे मिलने की तलब में, उन मोड़ों को गुजारना।
ये एहसास बंजारे से, जो राजी नहीं रुकने को,
उन्हें है भीगी पलकों की, नुमाइशों को ठुकराना