प्रतीक्षा ही अस्तित्व है
गीत अब शब्द नहीं,
एक अधूरे स्वप्न की श्वास हैं
जहाँ स्वर, मौन के घाव पर
अपनी परछाईं रखकर रोते हैं।
राग अब गाता नहीं,
वह केवल तिरता है
जैसे किसी निर्वासित चाँद की लकीर
जल पर अपने अस्तित्व की खोज में भटक रही हो।
हम
समय के शिलालेख पर
किसी अपठनीय मंत्र की तरह अंकित,
जागे भी, तो निद्रा के भीतर ही।
हमने चाँद से उजाला नहीं,
अपना प्रतिबिंब माँगा,
और वह भी धुंधला लौटा।
हमने चाहा
हर काँटे के भीतर फूल का स्वप्न बो दें,
हर आँसू को किसी तारे का नाम दे दें,
हर झुकी हुई दृष्टि के लिए
एक नूतन आकाश रच दें।
किन्तु नियति
जैसे किसी शिलाखण्ड की नींद में लिपटी
असंवेदनशील निस्तब्धता हो,
हमारी पुकारों से अनभिज्ञ रही।
हम
बूँद नहीं, सागर की विस्मृति हैं,
जो अपने ही ज्वार से कट चुके हैं।
हमने जब भी तट को पुकारा,
वह लहर बनकर लौटा,
और बोला
“तुम्हारी प्रतीक्षा ही मेरा अस्तित्व है।”
इस धरा पर कौन है
जिसने अपने ही दुख की देह में
दीप न जलाया हो?
कौन सूर्य है
जो अपनी ज्वाला से न दग्ध हुआ हो?
कौन पथिक है
जिसने अपनी ही छाया को
रात समझकर ठहराव न माना हो?
देह— केवल छाया का वस्त्र है,
प्राण— किसी अनाम दिशा की गंध,
और चेतना
एक कँवल है, जो अंधे जल में भी
आकाश का स्वप्न देखता है।
हम
सत्य के अरण्य में
एक स्वर की तलाश में भटकते रहे,
विनाश की चिताओं के पार
सृजन की राख में
जीवन की हरितिमा खोजते रहे।
रात की देह पर ओस उतर आई थी,
और हम
उसके चरणों में झुके हुए,
भोर की नाड़ी टटोलते रहे,
जैसे कोई ध्यानस्थ नदिका
अपने ही उद्गम की गंध खोजती हो।