आत्म विसर्जन
यह छोड़ना नहीं,
एक आत्म-विसर्जन है।
कथा के अंतिम पृष्ठ पर,
जहाँ स्याही थम गई,
वहाँ जन्म लेता है एक नया मौन,
जो शब्दों से अधिक बोलता है।
यह किसी चित्र का मिटना नहीं,
बल्कि कैनवास को नया रंग देने की प्रक्रिया है।
नदी, पत्थरों के स्पर्श से
अपने वेग को नहीं,
अपने अहम् को छोड़ती है।
यह एक आत्म-शुद्धि है।
प्रत्येक त्याग,
मन के सरोवर से
अनचाही काई का हट जाना है।
फिर वह गहरा नहीं,
पारदर्शी बनता है।
सूर्य का प्रतिबिंब उसमें
और भी स्पष्ट होता है।
यह कोई अंत नहीं,
एक लय का बदल जाना है।
जब रागिनी अपने चरम पर पहुँचकर
मौन होती है,
तब उसकी ध्वनि नहीं,
उसका बिंब बचता है
अनादि, अनंत,
जैसे आकाश अपनी नीलिमा को छोड़कर
सिर्फ़ विस्तार बनता है।
और इस विस्तार में,
हम अपनी मुक्ति का
पहला अध्याय लिखते हैं।