विजय का अदृश्य महाकाव्य
वह जीता,
और नगर के कंठ से
जयघोष फूटे।
मिठाइयों की मिठास में
गुँथा था उसका नाम।
किंतु यह विजय-पताका,
जो उसकी हथेली में थमाई गई थी,
वास्तव में उसकी नहीं थी।
वह तो उस स्त्री के मौन का सार थी,
जिसके भीतर
असंख्य रातों की उदासी थी,
अनदेखी प्रार्थनाएँ थीं,
और एक जलता हुआ दीया था
जो अपनी लौ को
कभी बुझने नहीं देता था।
उसकी सफलता के शिलालेख पर,
लोग एक ही नाम पढ़ते हैं—उसका।
किंतु उस शिला की नींव में
एक और कहानी गढ़ी गई थी,
जो कहीं अधिक गहरी,
कहीं अधिक सच्ची थी।
अखबार के काले अक्षरों में,
जब उसकी तस्वीर छपी,
तो एक अदृश्य आकृति
उसके पीछे मुस्कुरा रही थी।
एक मौन शिल्पी,
जिसने अपना नाम नहीं उकेरा,
किंतु पूरी मूर्ति को
जीवंत कर दिया।
विजय उसकी हुई,
पर यह सम्पूर्णता
उसकी नहीं थी।
यह तो उस स्त्री की थी,
जिसने अपनी पहचान को
एक स्वप्न की भाँति
उसके भीतर बो दिया था।
यह विजय का महाकाव्य
उसके नाम से नहीं,
उसके मौन से लिखा गया था।