ये पथ-परिवर्तन, ये परित्यक्ता—सुगम तो न था,
ये पथ-परिवर्तन, ये परित्यक्ता, सुगम तो न था,
असंख्य बार संधि-द्वारों पर निवेदन-पत्र रखे गए,
अनेक अवसरों पर दरकते संबंधों की पुनर्स्थापना का प्रस्ताव हुआ,
परन्तु प्रतिउत्तर में आया असहनीय संताप सामान्य, तो न था।
अपने हाथों से बुने सूत्रों को बिखेरना सुलभ तो न था,
पर असंख्य बार संयमित स्वर में पीड़ा दिखाई भी तो गयी,
अश्रुपूरित यथार्थ, अटूट विश्वास जताया भी तो गया,
किन्तु रुदन के स्पंदन को तुम्हारे अंतःकरण का स्पर्श, तो न था।
इस हृदय की मृदुता के अंतिम अंश की बलि का विधान तो न था,
पर जिस आकुलता, जिस व्यथा से अस्तित्व घायल किया गया,
मुक्ति पाते ही उसे सहजता से दूसरों पर आरोपित भी तो किया गया,
क्या धरा की मार्मिक परतों में संवेदनाओं का सम्मान भी न था?
ये आत्मिकता का उदासीनता में रूपांतरण आसान तो न था,
पर विखंडित हृदय से बहते लहू का निरंकुश अपमान भी तो किया गया,
जो स्मृतियों को भी चकित कर दे, ऐसा अभियोग भी लगाया गया,
पर उचित ही है शायद, क्योंकि पहले पथ पर एकाकी यात्रा का प्रमाण भी न था।