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29 Sep 2025 · 1 min read

भीड़ में खोयी आँखों को, एक चेहरा पहचाना दिख जाना,

भीड़ में खोयी आँखों को, एक चेहरा पहचाना दिख जाना,
क़दमों की बढ़ती आहटों में, उस वक़्त, वक़्त का रुक जाना।
बादलों का तो नाम ना था,पर बारिशों का बिन कहे आना,
हवाएं ठहर कर पूछ रहीं, क्या था ये कोई किस्सा पुराना?
यादों की सूखी दरख़्त से फिर, मंजरों का धूप सा छन कर आना,
परछाइयाँ नहीं शख़्सियत थी वो, संग जिसके गुजरा, था एक ज़माना।
अजनबियत थी उन आँखों में, जो कहता था तुझे घर है माना,
बेदखली भी कुछ ऐसी रही, कि तय था घर का खंडहर हो जाना।
नहीं रूकती थी बातें जहां, अब शब्द ढूंढ रहे, एक मुश्किल सा ठिकाना,
अजीब था रगों में बहते लहू का, ज़िन्दगी की बिसरी सी भूल बताना।
बंट चुकी थी राहें कब की, पर मुश्किल रहा धड़कनों को वहाँ से उठाना,
कितनी बार लौट कर आये थे कदम, जहां मिलता रहा वो स्याह वीराना।
संदेशों का अम्बार लगाया, एक जूनून था वक़्त को बाँध कर लाना,
वो नदी भी सिसक कर रो पड़ी, जिसे पड़ा खुद के घाटों को जलाना।
अब ना बैर रहा, ना मोह दिखे, यूँ खाली हुआ है हर पैमाना,
मेरी आशिकी पर राहों से रही, और मंजिल ने लिखा, अब खुद को है पाना।

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