*चार दिवस के संगी-साथी, फिर सब अपनी राह (गीत)*
चार दिवस के संगी-साथी, फिर सब अपनी राह (गीत)
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चार दिवस के संगी-साथी, फिर सब अपनी राह
चलते-चलते कौन मिल गया, यह रहस्य अनजाना
लिखा भाग्य में कौन जानता, क्या खोना क्या पाना
चलते रहो निरंतर पथ पर, बिना किए परवाह
पक्षी जैसे उड़े गगन में, उच्च उड़ान लगाते
लेकर बड़ा वृत्त वे नीचे, उतर-उतर कर आते
किसी-किसी का देखा करतब, हर मन में है चाह
कोई अर्थ नहीं मिलने का, अर्थहीन सब जीना
अमृतमय सुख-भोग मिले या, जहर कंठ से पीना
दौड़ रहा है महाकाल बस, लेकर नित उत्साह
चार दिवस के संगी-साथी, फिर सब अपनी राह
रचयिता: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451