प्रेम की अपूर्णत्ता, एक राह नयी दिखाती है,
प्रेम की अपूर्णत्ता, एक राह नयी दिखाती है,
जुगनुओं की टिमटिमाहट संग, विरह के वन में भटकाती है।
यूँ तो रात आसमां को, भोर के दर पर पहुंचाती है,
पर अन्धकार को तकती आँखें, सूरज की लालिमा से घबराती हैं।
हवाओं की नर्म रवानगी, आंसुओं को पोछने तो आती है,
पर दर्द की चिताओं पर संग बैठ, वो भी रुदाली सी गाती है।
प्रतीक्षा सी बहती नदी, अब ना मिलन के सागर को पाती है,
चोटिल है खुद के किनारों से, और बवंडर से लाड लगाती है।
सन्नाटों की गहरी शून्यता, यूँ साँसों को लुभाती है,
कि शब्दों की खिलखिलाती महफिलें, ज़हर सी कानों को तड़पाती हैं।
एक दिन कलम उठकर यूँ हीं, कहानी से खुद की मिलवाती है,
ख़त्म होती है जो दवातें, तो आयामों की खिड़कियाँ खटखटाती हैं।
प्रेम को अब पिंजर का नहीं, खुले मैदानों का बाशिंदा बतलाती हैं,
संग चलती है ये कोसों-कोसों, फिर प्रेम की सार्थकता में मुक्ति पाती है।