प्रकृति का प्रकोप
वसुधा का सुरम्य श्रृंगार,
प्रकृति का अद्भुत अलंकार।
देवताओं का रूप साकार,
विशाल, विराट, विहंगम, धराधर।
सुगम बनाने पहाड़ को,
मशीनों की दहाड़ को।
लेकर आदमी आया शहर से,
बरपाया कहर अपनी सोच से।
अवरुद्ध किया नदियों का प्रवाह,
और जंगल सारे किये स्वाह।
हुई सुंदर प्रकृति भी तबाह,
भयंकर त्रासदी इसकी गवाह।
गरजे बादल शाम-सकाल,
सौम्य सरिता हुई विकराल।
देख कुदरत का महाविनाश,
कांपे भय से मानव हताश।
बिना देवताओं की स्वीकृति के,
किया छेड़-छाड़ प्रकृति से।
कष्ट मिला मानव को परिपूर्ण,
आवर्तन जीवन का हुआ पूर्ण।
जीवन वैतरणी की यही सारणी,
जैसी करनी वैसी भरनी।