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8 Sep 2025 · 1 min read

#ई_हमरो_अरदास_समझ_लीं, चाहे कातर पाती।

#ई_हमरो_अरदास_समझ_लीं, चाहे कातर पाती।
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माई पुछलस, बहिनी पुछलस,
पुछलें संगी साथी।
नोकरी पर जब मिलले नईखे
बतलाईं हम काथी।।

सुखल मुहवा के भाषा पढ़ि, बाबूजी बुझि गइलें।
आके माई से बस पुछलें, बबुआ कुछो खइले?
उनकर भाव हियरवा के ई, बनल रहे मोर थाती।

नोकरी पर जब मिलले नईखे
बतलाईं हम काथी।।१।।

गाँव जवार लफण्डर समझे, माने सिक्का खोटा।
बेकारी तमगा दिहले बा, बिन पेंदी के लोटा।
घरवा खातिर आजु शनिचर के बानी सड़साती।

नोकरी पर जब मिलले नईखे
बतलाईं हम काथी।।२।।

पढ़त-लिखत ले गाँव नगर के रहनी सुरुज- चंदा।
नोकरी ना मिमला से भइनी, अबहिं गर के फंदा।
भुकजोन्हि बन गइनी जेकरे बनेके दियना- बाती।

नोकरी पर जब मिलले नईखे
बतलाईं हम काथी।।३।।

लोग बढ़ल नोकरी कम भइल, दोष लगाई केकर?
मिलतो बा त ओकरे ह ई, घुस खिआई जेकर।
दिनवा भर तऽ चप्पल खिसीं, आंश बहाईं राती।

नोकरी पर जब मिलले नईखे
बतलाईं हम काथी।।४।।

हे! विधना कुछु जुगत भिड़ाई भा धरती पर आईं।
भ्रष्टाचार अबादी पर त, तनिका रोक लगाईं।
ई हमरो अरदास समझ लीं, चाहे कातर पाती।

नोकरी पर जब मिलले नईखे
बतलाईं हम काथी।।५।।

✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’ (नादान)
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार

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