द्वार खुला मित का रहे, ऐसा हो व्यवहार।
द्वार खुला मित का रहे, ऐसा हो व्यवहार।
स्वार्थ बसेरा जो करे, बंद वहाँ का द्वार।।
घट में भरिए प्रेम जल, जो शीतल हर बार।
पान करें कोई अगर, बदले निज व्यवहार।।
सबका हित जो चाहता, उसे मिले सत्कार।
वंदन उनका सब करें, सुख सुविधा इनकार।।
आओ सबको मान दें, अपनों वाला प्यार।
लेकिन आशा छोड़कर, करिए सदा विचार।।
धर्म-कर्म के भेद में, क्यों पड़ता है यार।
“पाठक” छंद बस छोड़ दें, होना तय उद्धार।।
:- राम किशोर पाठक (शिक्षक/कवि)