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5 Sep 2025 · 2 min read

लघुकथा। कागज

दो लड़कों का सुख मुझे तभी तक मिला जब तक वह पढ़ाई कर रहे थे
उनको अच्छी नौकरी मिली खुशी की बात थी । सुदेश ने बच्चों को पूरी छूट दी थी कि अपना करियर बनाने के लिए कोई बंधन नहीं है । आखिर ये दोनों अपने घोंसलों से निकल कर बाहर निकल ही गये ।
अब मैं और सुदेश ही रह गये ।
खुशी खुशी दोनों शादी की , जैसा की होता ही है । आप सोच रहे होंगे कि मैं भी क्या छोटी छोटी बातें आप से कर रही हूॅ ।
खैर सब अपनी अपनी जगह खुश थे इस बीच सुदेश की तबीयत खराब रहने लगी । अपनी मेहनत से अपनी सर्विस काल में बच्चों की पढाई के साथ साथ घर – द्वार भी अच्छा बसा लिया था ।
बच्चों को समय ही था कि कभी मिलने या बीमारी में आ जाये , देख जाये या इलाज करवा जायें ।
एक दिन सुदेश कागज पर कुछ लिख रहे थे और मुझे देते हुए बोले :” यह वसीयत है ,मेरे बाद काम आयेगी ।”
मैंने दुखी मन से उसे ले कर बिना पढ़े रख ही रख लिया ।
बच्चें बार बार पूछते रहते थे :” माॅ पापा ने वसीयत तो कर दी ना ”
तब मैं “हा” भर कह पाती थी

सुदेश इस दुनियाॅ से चले गये । बच्चे नहीं आये , स्थानीय रिश्तदारों ने अंतिम संस्कार कर दिया वह लोग इतनी जल्दी कैसे आते नौकरी चाकरी जो थी ।
तेरहवीं के दिन पूरा उत्सव सा माहौल लग रहा था ।
अच्छा खाना, रिश्तेदारों को गिफ्ट और ” जैसा बोया है वैसा काटेंगे”
” इतनी शक्ति हमें देना दाता ” जैसे गाने बज रहे थे । मैं ही दुखी सुदेश के फोटो के पास बैठी थी ।

जब सब लोग आ गये तब बड़े बेटे ने माइक पर कहा :” अब पापा जी वसीयत मैं माॅ से लेकर पढता हूॅ , जिससे हम भाईयों में बना रहे और आगे कोई मन-मुटाव नहीं रहे ।”
मैंने वसीयत का कागज आगे बढ़ा दिया ।
लेकिन वह कागज देख कर बेटे का मुंह उतर गया ,लेकिन पढना तो था ही इसलिए उसने पढा :” मेरे बाद मेरी जायदाद मेरी पत्नी के नाम रहेगी ।”
और कोई भले समझे हों लेकिन मैं समझ गयी थी कि सुदेश जानते थे कि “अगर बच्चों के नाम अभी से जायदाद बांट दी तो यह सब बेच-बाच कर चले जायेंगे , भले ही मैं दर-दर की ठोकरें खाती रहूं ।
खैर माहौल एकदम ऊखडा ऊखडा सा भारी हो गया दोनों बच्चे आपस में और मुझ से खिंचे खिंचे से गये ।
ज्यादा नहीं रूकते हुए एक दो दिन में सब चले गये ।
किसी ने यह पूछा :” माॅ कैसे रहोगी , हमारे साथ चलोगी ।”
अब अकेले में मैं सोच रही थी :
” क्या सब रिश्ते-नाते यहीं वसीयत तक हीं हैं ?”

संतोष श्रीवास्तव

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