स्वच्छता
स्वच्छता
वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता को एक देशव्यापी जन-जागरूकता कार्यक्रम का रूप देकर बहुत ही सराहनीय एवं उत्तम कार्य किया जा रहा है। देश के संपूर्ण जन-मानस को एक साथ स्वच्छता के प्रति साहूहिक एवं सहभागिता के साथ संचालित किया जाना अपने आप में एक अद्भुद एंव दुरूह कार्य है, क्योंकि स्वच्छता जो कि समाज में सबसे हेय दृष्टि से देखा जाने वाला एवं निम्न समझा जाने वाला कार्य माना जाता है। किन्तु लोग नहीं जानते कि स्वच्छता भी सबसे महान कार्यों में से एक कार्य है, जिसको महान एवं श्रेष्ठकर बताने का कार्य राष्ट्रीय स्तर पर किया जा रहा है जिससे स्वच्छता की सोच को लेकर लोगों के अन्दर परम्परागत मानसिक विकारों एवं विचारों में परिवर्तन संभव हो सके। साथ लोगों के व्यवहार परिवर्तन एवं दृष्टिकोण में बदलाव के साथ ही स्वच्छता को पूर्णतः के साथ संपादित किया जा सके।
असल में हम भारतीय लोग स्वैच्छिक एवं वास्तविक न होकर पाखाण्ड एवं भृंम में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। हम लोग आदतन आलस्य एवं गंदगी पसंद लोगों में गिने जा सकते हैं। ऐसे में क्रियाशील स्वच्छता को अभियानात्मक रूप से किया जाना किसी भागीरथी प्रयास से कम नही माना जा सकता है। यदि हम इसे वास्तविक एवं अनुशाषित रूप पर अपनाकर अपनी गंदगीप्रिय आदतों में बदलाव ला सकें तोे इस देशव्यापी स्वच्छता अभियान का मुख्य उद्देष्य ‘‘स्वच्छ भारत’’ का संकल्प पूरा हो सकता है।
संवैधानिक रूप से प्राप्त ‘‘स्वतंत्रता का अधिकार’’ जिसका उपयोग हम उदण्डता के साथ भरपूर गंदगी फैलाने में अधिक से अधिक करते हैं, पर भूल जाते हैं कि अधिकारों से पहले प्राकृतिक विधिक कर्तव्य का समावेश होता है। जो भले ही संवैधानिक रूप से लिखित एवं घोषित न किये गये हों पर स्वच्छता हमारा मौलिक कर्तव्य अवश्य होना चाहिए और इसीतरह गंदगी फैलाने वाले अधिकारों से पूर्व स्वच्छता के अपने कर्तव्यों का सत्यनिष्ठा के साथ पालन करना भी हमें नैतिक, सच्चे एवं अच्छे देशभक्त नागरिक होने का बोध कराता है।
इसी को लेकर 1992 में 73वें संविधान संशोधन की 11वीं अनुसूची में ‘‘ग्राम्य स्वराज्य’’ की परिकल्पना को साकार करने के लिए ग्राम्य विकास की अवधारणा को सम्मिलित किया गया। जिसमें ग्राम पंचायत में स्वच्छता को अधिकारिक तौर पर संविधान में वर्णित किया गया एवं स्वच्छता को ग्राम पंचायत की मौलिक जिम्मेदारी बताई गयी। इसी प्रकार 12वीं अनुसूची में नगर पंचायत को सम्मिलत कर स्वच्छता को नगर पंचायत की मौलिक जिम्मेदारी बाताई गयी।
वैसे तो स्वच्छता जीवन से जुड़ी हुई स्वभावतः अपनी गति से चलने वाली सत्त प्राकृतिक क्रिया भी है। जो कि पृथ्वी पर सभी प्राणियों में श्रेष्ठ कहे जाने वाले ‘‘मानव’’ द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी की गति की अपेक्षा बहुत धीमी है। हमने जीवन के उपादान जैसे- जल, वायु, एवं पृथ्वी के साथ संपूर्ण वातावरण को बहुत तेजी से दूषित किया है। कूड़ें -कचरे के साथ सभी प्रकार की गंदगी से पृथ्वी को पाट दिया है। साथ ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को गंदगी से डुबो दिया है। जहां देखो वहां गंदगी का अम्बार लगा हुआ है। चाहे- धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक (व्यवसायिक) हो या शारीरिक, मानसिक एवं वैचारिक गंदगी हो। हमने लगभग सभी क्षेत्रों को दूषित करने में महारत हासिल कर गंदगी फैलाने में कोई कसर नही छोड़ी। अब सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि आने वाली पीढ़ी को हम क्या यही गंदगी छोड़कर जायेगें?, आने वाली संतती इसी सभी प्रकार से दूषित वातावरण में स्वास लेगी?, क्या इसी घुटन भरे विषैले वातावरण में जीवन जीने को मजबूर रहेगी?, या हम इसका कोई समुचित उपाय कर निर्मल और पावन बनाने का सामूहिक कार्य करेगें?
स्वच्छता अपने वास्तविक स्वरूप, स्थिति एवं क्रिया के रूप में होनी चाहिए, न कि नाटकीय या आभिनयात्मक। नाटकीय या अभिनयात्मक ढंग से किया गया स्वच्छता का कार्य एवं अभियान कभी प्रयोगिक एवं हितकारी प्रयोजन में प्रयुक्त नही हो सकता बल्कि नाटकीयता एवं पाखण्ड को बढ़ावा देकर समाज के लिए यह बहुत घातक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि हम मलीन होते हुए भी स्वच्छ, निर्मल एवं पावन होने के भृंम से पोषित होते रहेगें।
समाज में स्वच्छता एवं सफाई कर्मियों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। जबकि पता होना चाहिए कि आज तक जितने भी महापुरूष हुए हैं उन सब ने एक महान सफाई कर्मी बनकर स्वच्छता का संदेश दिया। उन्होने संपूर्ण मलीनता की परतों को साफ कर पूर्ण निर्मलता की ओर अग्रसर करने का पूरा प्रयास किया। यदि प्रत्येक व्यक्ति गंदगी न फैलाने का दृण संकल्प लेकर केवल अपनी फैलाई गंदगी को साफ करता रहे तो यहां व्याप्त गंदगी को स्वच्छ होने में अधिक समय नही लगेगा। वैसे भी सभी व्यक्तिगत रूप से तो सफाईकर्मी ही हैं।
जैसे कि स्वच्छता का स्वास्थ्य के साथ सीधा और घनिष्ट संबन्ध है। इसी प्रकार स्वच्छता का विकास के साथ सीधा और घनीष्ट संबन्ध है। पहले हम शारीरिक, मानसिक एवं वैचारिक रूप से स्वच्छ होगें तभी पूर्ण स्वस्थ भी होगें, और जब पूर्ण स्वस्थ होगें तभी सत्त विकास करने में अग्रसर होगें। इसी प्रकार राष्ट्र भी पहले राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक (व्यवसायिक), एवं वातावरणीय प्रदूषण से स्वच्छ होगा तो स्वस्थ होगा, तभी राष्ट्र समृद्ध एवं सत्त विकसित होगा। इसी के साथ ही हम सच्चे अर्थों में ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे सन्तु निरामया’’ की अभीष्ट भावना को साकार को साकार करने में सक्षम हो सकते हैं।
‘‘गंदगी कितनी है, कहां-कहां है? यह स्वच्छता शुरू करने पर पता चलता है।’’
झांसी
5/10/23
©अमित कुमार(अमित्या)…