मातृ प्रेम
मैं
जब भी गोरखपुर वाले घर में जाता था,
तो सबसे पहले गेट नहीं खोलना पड़ता था
घर के गेट पर ही कोई न कोई स्वागत करने वाला अवश्य मिल जाता था…
माँ, भाभी, बावा, या पापा….
जब मेरी परछाईं मोहल्ले में पड़ती
एक किलोमीटर दूर तक बच्चे दौड़ते चले आते थे…
छत पर और खेतों में काम करते आदमी-औरत
दोनों हथेलियों से आँखों पर छांव कर
लंबे-लंबे घूरते थे…
एक पूछती—
ए बहिनी, केकर लईका ह….?
दूसरी जवाब देती—
गोपाल बाबू क लाग ता…
अच्छा… छोटका लईका ह ना…?
“बबलूया”
हं रे, खूब लमहर हो गइल बा…
हाँ “बबलूया” …
इसी नाम से जाना जाता था मैं….
तब पापा का नाम गोपाल नहीं,
गोपाल बाबू ही हुआ करता था…
अब…
ना वो आवाज़ें हैं,
ना कोई गेट खोलने आता है…
खुद ही घर का गेट खोलो और अंदर चले जाओ..
इन्सान से पहले स्वगात में खड़ा होता है “पोगो”…जी हाँ मेरा पोगो प्यारा पोगो…
मैं
जब भी घर में पड़े पुराने बर्तनो को देखता हूँ
घर की पुरानी अलमारी और सामन को देखता हूँ कुछ धूल से ढके, कुछ टांड पर बांधकर रखे हुए…
उनमें कभी खीर, तो कभी त्योहार का प्रसाद जरूर बनता था
मेरे आने पर, पड़ोस के घर से कटहल जरूर तोड़ा जाता, क्योंकि मुझे पसंद था…
पूड़ी और आलू की सब्ज़ी भी ज़रूर बनती थी,
क्योंकि वो भी मुझे पसंद थी…
चाय रखे-रखे ठंडी हो जाती थी
क्योंकि मेरी बातें गर्म होती थीं…
माँ और भाभी की चूड़ियों की खनक,
पलटे की खटखट,
और मेरी माँ के हंसते हुए बोलों और प्यार भरी गलियों का संगीत एक साथ बजता था
घर का अपना रेडियो….
मम्मी के बेंत का सोफ़ा आज भी गेराज में पड़ा है, जो धुल-मिट्टी की गिरफ्त में है…
उस पर, अब माँ तो नहीं बैठती पर उस पर उनका वजन आज भी महसूस होता है,
जैसे वो अभी भी वहां बैठकर कुछ पूछेंगी..
लेकिन वो बेंत का सोफ़ा….
अब उदास, बस चुपचाप मौन धारण किए
दिन-रात की धूप-छांव में पूर्ण रूप से धुल में मिल चूका है….
मैं
माँ के लोहे का बक्सा खोलता हूँ
साड़ियों के बीच दबी
एक छोटी सी कपडे की पोटली
उसमें मुड़े हुए कड़क नोट,
कुछ छोटी-बड़ी डिबिया, कुछ बर्तन
जिनमें भगवान जी का श्रृंगार, और कुछ कपड़े,
जो बरसों से वहीं रखे हैं…
जब भी खोलता हूँ उस बक्से को
उन कपड़ों से आती माँ के हाथों की खुशबू
जो अब भी मुझे डांट देती है….
हाथ धोये की नहीं….?
मैं ख़ाली बैठे-बैठे कई बार सोचता हूँ
दीवारें भी बूढ़ी हो जाती हैं,
अपनी झुर्रियों में यादें छुपाकर रख लेती हैं…
माँ के चले जाने के बाद
मैंने जाना,
मेरी उम्र अब सिर्फ मेरी नहीं है,
उसमें माँ की डांट, माँ के हाथों की पिटाई
अधूरा बचपन, उनकी अधूरी यात्राएँ,
हमारे इम्तिहान के वक़्त उनकी अधूरी नींद भी शामिल है….
माँ के चले जाने के बाद
गोरखपुर वाला घर अब घर नहीं रहा, एक खंडहर में तब्दील होता जा रहा है..
सच कहूँ तो सिर्फ एक मकान हो गया,
और मैं…
उस घर का मेहमान….
कभी-कभी सोचता हूँ—
अगर स्वर्ग में सच में दालान होते होंगे,
तो मम्मी वहाँ भी
पानी डाल-डाल कर झाड़ू बुहार रही होगी,
मैं चाहता हूँ की
मैं जब भी वहां पहुंचु, जब मैं जाऊँ,
तो वहाँ भी वही हो,
जो यहाँ नहीं रहा ****