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16 Aug 2025 · 1 min read

हाँ, ये प्रतिबिम्ब झूठ बोलते हैं,

हाँ, ये प्रतिबिम्ब झूठ बोलते हैं,
दिखाते हैं ये आँखों का रंग, काया की आभा,
पर रूह की गहराईओं से, रहता इनका नाता नहीं,
विचारों का द्वंद इनसे, दिखाया जाता नहीं।

हाँ, ये प्रतिबिम्ब मुस्कुराहटों का छल दिखाते हैं,
दिखाते हैं ये लिबास की सिलवटें, उम्र की करवटें,
पर अनंत जन्मों का सफर, ये दिखा पाता नहीं,
परिस्थितियों के सागर में उठती, बेचैनियों से ये बचाता नहीं।

हाँ, ये प्रतिबिम्ब उजालों को साथी अपना बनाते हैं,
दिखाते हैं ये दामन पर लगे दाग, झुकी पलकों से बहता अवसाद,
पर अँधेरे कमरे के बंद कोनों, तक ये पहुँच पाता नहीं,
जख्मी हृदय से रिसता लहू, इनसे दिखाया जाता नहीं।

हाँ, ये प्रतिबिम्ब अस्तित्व को मेरे अब सताते हैं,
दिखाते हैं ये पहचाने से चेहरे, उलझी लटों के घने पहरे,
पर खोई मासूमियत की, डूबी उम्मीदों को ये ढूंढ पाते नहीं,
सितारों में बसे मेरे घर को ये, मुझे लौटाते नहीं।

हाँ, ये प्रतिबिम्ब झूठ बोलते हैं।

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