ठहरी हुई सी जिंदगी, और ये खानाबदोश एहसास,
ठहरी हुई सी जिंदगी, और ये खानाबदोश एहसास,
चलते रहे दो किनारों की तरह, पर ना आ सके हम पास।
शहर तो था वो बहारों का, जो आया नहीं कभी रास,
जुगनुओं से टिमटिमाता वो जँगल हीं, देता रहा हमें आस।
नदियाँ थी आँखों के सामने, जो बुझा ना सकी प्यास,
मेरे जज्बातों ने हीं पहन रखा था, सूखी रेत का लिबास।
हवाओं में रही आवारगी, पर बेड़ियों में रहा पलाश,
धरा थामे रही बाहें मेरी और, पुकारता थक गया आकाश।
सांझ के छज्जे पर बैठी थी मुस्कुराहटें, आखें थी जिनकी उदास,
उम्र यूँ तो कट रही थी, पर मन ले चूका था संन्यास।
कभी छूती थी ठंडी बारिशें तो, खुलती एक खिड़की अनायास,
यादें खोल कर पढ़ने बैठती, था एक अधूरा उपन्यास।
फिजाओं में सपनों का प्रवाह तो था, पर सासों को था कारावास,
यूँ इंतज़ार में क्षितिज की धूल थी, कि होगा कभी लकीरों का शिलान्यास।