"सत्य और मिथ्या"
“सत्य और मिथ्या”
एक रोज़ सत्य मिला मिथ्या से राह में,
बैठ गए दोनों समय की एक छाँह में।
सत्य बोला,
“मैं निर्वस्त्र चलता हूँ, पर डरता नहीं,
हर आँख में खुद को टटोलता हूँ, झूठ भरता नहीं।
मैं कड़वा हूँ, पर खरा हूँ,
मैं वो हूँ जिसे वक़्त भी न झुठला सके।”
मिथ्या मुस्काई ,
“मैं सज-धज के आती हूँ, चुपके से बहकाती हूँ।
हर दिल में उम्मीदें बोती हूँ,
मैं वो सपना हूँ जिसे लोग सच मान बैठते हैं।”
सत्य ने कहा ,
“तू पल भर की है, मैं युगों का दीप हूँ।
तेरे रंग फीके हैं, मेरी रोशनी गहरी।
तू बदलती है मौसम-सा,
मैं टिका हूँ पर्वत-सा।”
मिथ्या हँसी,
“पर पर्वत को कौन चढ़े जब रास्ता फूलों भरा हो?
सच की चट्टानों पर चलना सबको कहाँ गवारा होता है?”
तभी वक़्त आ गया और बोला ,
“तुम दोनों मेरे ही चेहरे हो,
मगर एक चेहरा जब मुखौटा पहन लेता है,
तो उसका सच खो जाता है।
और जब बिना मुखौटे कोई खड़ा होता है,
तो उसे दुनिया देर से, पर पूरा समझती है।”
अब भी वो दोनों मिलते हैं अक्सर,
सच अपनी धुन में, मिथ्या अपने भ्रम में।
पर जीत अंत में उसी की होती है ,
जो चुपचाप, सत्य के संग चलता है।
©® डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”