ये ज्वलंत वेदना तुम्हारी, कौन समझ पायेगा,
ये ज्वलंत वेदना तुम्हारी, कौन समझ पायेगा,
जो भी मिलेगा, निर्णयात्मकता की कटार उठाएगा।
पीड़ा सिर्फ स्वयं की, समझ आती है इस संसार को,
पराये दुःख पर, आलोचनाओं का बाजार लग जाएगा।
पूर्वाग्रहों का बंधन, कठोर है इतना,
कि परिस्थितियों के दलदल में, कोई अपना हीं तुम्हें डुबाएगा।
पंख कतरकर, पंजर में डालकर,
भ्रांति भरे आसमां के, बादलों पर तुम्हें बिठायेगा।
मुस्कुराते चेहरे, मीठा कटाक्ष और विषाक्त बाणों की बरसात,
आँखों में जो अश्रु आये, व्यापारी नमक का वो बन जाएगा।
आस जीतकर, आस्था टूटेगी, हृदय भी श्वास गवायेगा।
प्रपंच के ऐसे जाल सुनहरे बिछेंगे, कि अस्तित्व ठगा रह जाएगा।
तरुण लता मृत पड़ जायेगी, और मन बरगद हो जाएगा,
यूँ वयस्कता का दंश पड़ेगा, रक्त नीम गुण पायेगा।