वो सुदूर अनंत, और विरक्ति की स्याही,
वो सुदूर अनंत, और विरक्ति की स्याही,
मन का कोरापन, और शब्दों की मनाही।
एक धूमिल दृष्टि, जो अश्रुओं से नहायी,
संवेदनाओं की, यूँ हुई थी जगहंसाई।
कोमल अस्तित्व, और शूल थामे कसाई,
कथन से अपने, पर जात पराई।
बेसुध आस्था की चीर जलाई,
यूँ मृदा सिसक कर, मौन में थर्राई।
गर्वीले दानव ने हुंकार लगाई,
मान – हरण की, हर रेखा मिटाई।
गहन सागर के अन्धकार ने, मीरा की फिर आस बचाई,
सयंम ने युद्ध घोष कर, तलवार पर सान चढ़ाई।
ज्वलंत आँखें, पाषाण हृदय, वायु लेकर आयी है तबाही,
चरित्र की रुग्णता पर ढाल चढ़ाकर,कब तक बचेगा अब अन्यायी।