कविता: "भूखे थे, कुछ खिला दो, मैं फ़कीर तुम-सा"
कविता: “भूखे थे, कुछ खिला दो, मैं फ़कीर तुम-सा”
भूखे थे, कुछ खिला दो, मैं फ़कीर तुम-सा,
ना तिजोरी है, ना मोती, ना जमीं-ख़ुदा-सा।
चूल्हा भी है ठंडा, और थाली भी सूनी,
हर शाम सिसकती है, हर सुबह है अधूरी।
पेट में आग है, आँखों में पानी,
कहाँ ढूँढूं रोटी, कहाँ ढूँढूं इंसानी?
ना भीख की चाह, ना राज की आस,
बस दो निवाले हों, बस इतना एहसास।
मैं भी इंसान हूँ, कोई बोझ नहीं,
बस भूख का नाम हूँ, कोई खोज नहीं।
तुम महलों में रहते हो, मैं छाँव तलाशूं,
तुम सोने के चम्मच से खाओ, मैं भूख को पालूं।
फिर भी मुस्कुराता हूँ, कुछ दर्द छुपा के,
हर दिन खुदा से दुआ करता हूँ झुका के।
भूखे थे, कुछ खिला दो, मैं फ़कीर तुम-सा,
तुम भी मिट्टी के बने हो, कोई हीरा-सा नहीं खासा।
—✍️ Jitesh Bharti