ये नित्य संघर्ष, हृदय को थकाने लगा है,
ये नित्य संघर्ष, हृदय को थकाने लगा है,
अवसाद की हरितभूमि पर, जल बरसाने लगा है।
निराशा के बुझे दीयों को, लौ दिखाने लगा है,
अतीत की स्याह परछाइयों, की कालिमा बढ़ाने लगा है।
अस्तित्व की गरिमा पर, तीखे प्रश्न उठाने लगा है,
उड़ानों के साहस, में सेंध लगाने लगा है।
दुर्गम मरुभूमि की तपिश, में भटकाने लगा है,
मृगतृष्णा की झलक को, अब ये चुराने लगा है।
प्रतिबिंब की चमक पर, धूल चढाने लगा है,
अनिच्छित कोनों में, मुझको छिपाने लगा है।
पर घनी अमावस में भी, एक तारा टिमटिमाने लगा है,
दुर्बल रेशे पर, आस टिकाने लगा है।
मृत सागर की बेहोशी, से जगाने लगा है,
दूरस्थ पतवारों की आवाजें, सुनाने लगा है।
देखो वो कृष्णा, सुदर्शन उठाने लगा है,
मेरे धैर्य का सारथि, फिर रथ को चलाने लगा है।
बुझे दीयों को अग्निबाण, से जलाने लगा है,
ये युद्ध स्वयं मेरे पथ पर, विजयघोष बजाने लगा है।