परिवर्तन की ओर
परिवर्तन की ओर
हम चाहते हैं
कि कोई न रोये अंधेरे में,
कि किसी की आशा
तूफ़ानों में बुझ न जाए।
पर क्या हमने कभी
किसी की नमी को अपना आँचल दिया?
हम पथ पर चलते हैं
अपने ही लक्ष्य की ओर —
पर क्या कभी पीछे देखा
कि कोई साथ चलने वाला
थककर बैठ तो नहीं गया?
हम शब्दों में
रिश्तों को गढ़ते हैं —
भाई, मित्र, पड़ोसी…
पर क्या आत्मा से जुड़ा कोई संवाद
अब भी जीवित है हमारे भीतर?
हम ईश्वर को पूजते हैं
और मनुष्यता को भूलते हैं।
आरती में दीप जलाते हैं,
पर भीतर का अंधकार
वैसा ही बना रहता है —
क्या वह आराधना पूर्ण मानी जाएगी?
हमारी दृष्टि
दूसरों की भूलों पर गहरी है,
पर स्वयं की त्रुटियाँ
हमें धुंधली दिखती हैं।
क्या आत्मगौरव
आत्मसमीक्षा के बिना पूर्ण होता है?
हम वस्त्रों को उजला रखते हैं,
पर मन पर
संशय और अभिमान की धूल जमी रहती है।
क्या बाहरी सौंदर्य
भीतर की असंगति को छिपा सकता है?
हम जिससे ईर्ष्या करते हैं,
वही कभी हमारे लिए
प्रकाश बन सकता है।
क्या हर प्रतियोगिता
विरोध का रूप होती है?
जिसने हमें चोट दी,
उसके प्रायश्चित की प्रतीक्षा
क्या प्रतिशोध से अधिक मानवीय नहीं है?
क्या हर अपराधी
अन्याय से नहीं, क्षमा से टूटता है?