भिखारिन
भूख से व्याकुल
चित्त से आकुल
बेबस बदहवास
कंठ में लिए प्यास
फटी धोती में खुद को छुपाती हुई
लाजवंती पर न लजाती हुई
मंदिर की सीढ़ियों पर ये कौन बैठी है !
जन्म लेते ही किस्मत फोड़ गए
क्या कहा !
इसके जन्मदाता ही इसे
मंदिर की सीढ़ियों पर छोड़ गए।
तो क्या मंदिर की सीढ़ियों से
किसी ने उठाया नही
उस पत्थर की मूरत के सिवा
किसी ने अपनाया नही
इसका कोई नाम नही है
जो ठीक लगे रख लो
या फिर लोग भिखारिन कहते हैं
तुम भी वही कह लो।
केश बिखरे आंखे पथराई
तन पर धूप से कालिमा है छाई
वेश जान बूझकर ऐसा बनाया नही है।
हाँ ये सच है उसने कई दिन से कुछ खाया नही है।
अन्न की चाह में
मिट्टी का टूटा पात्र लिए बैठी है।
पेट की पुकार पर चीखती है चिल्लाती है
आवाज कर्कश हो गई है
किसी अभिमान में नही ऐंठी है।
और उस पर पूजा की थाल लिए
सीढ़ियों से गुजरते लोग
जिनका ध्यान भूख से बिलखते मन पर नही
बल्कि फटे चिथड़े कपड़ो से झांकते तन पर है
वे भला उस अभागिन को क्या ही दे पाएंगे
हरिनाम बोलेंगे और आगे बढ़ जाएंगे।
माफ करना !
पर जब गर्मी लू और ठंड से बचाने को
एक पत्थर की मूर्ति के लिए
वातानुकूलक लगा सकते हो,
गर्म ऊनी कपड़े पहना सकते हो
तो क्या इन मजबूरों के लिए
तुम्हारे पास कोई उपक्रम नही है
या फिर सब कुछ एक ढोंग है छलावा है
कोई सार्थक अनुक्रम नही है।
घबराओ मत !
ये सवाल मेरे नही हैं
मैं भी तुम्हारे जैसा ही हूँ
कोई फर्क नही है
ये तो उसी के प्रश्न है
जिसका कोई नाम नही है
जो भी चाहे रख लो
लोग भिखारिन कहते हैं
तुम भी वही कह लो।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’