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10 Jun 2025 · 1 min read

क्षणिका

(6)
सियासत को इंसान
इंसान नहीं, नज़र आते हैं भेड़
जिसकी ऊन ही नहीं
खाल उतारने पर आमादा रहते हैं सभी।
(7)
चलती हुई घड़ी की
टिक-टिक सी
खत्म नहीं होतीं कभी
ज़िंदगी की मुसीबतें ।
(8)
लिखती हुई कलमउगलती है
जब दर्द
रोशनाई की जगह
सच वह ही होती है असली कलम
एक साहित्यकार की।
(9)
कोई खटपट
कोई शोरगुल कुछ नहीं है
इस घर में
शायद बच्चे बड़े होकर
कमाने निकल गए।

(10)
टूटे हुए हौसलों को जोड़कर
वक़्त की दीवार से टकराना
महज इत्तफाक नहीं होता
ये फितरत होती है एक ऐसे इंसान की
जिसे पसंद होता है चलना।
डाॅ बिपिन पाण्डेय

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