घूरा (घुरवा)
गाँव के बाशिन्दे
खेत में, खलिहान में
सड़क के किनारे
गड्ढा खोदकर बनाते हैं घूरा,
डालते हैं उसमें
पशुओं के गोबर, मल-मूत्र
उसके छोड़े हुए चारे
मिट्टी और पराली
करकट और कूड़ा।
ये तमाम चीजें सड़कर
जैविक खाद बनकर
किसानों के काम आते,
खेतों में डल करके
पौधों को पोषण दे जाते।
गॉंव की महिलाएँ रोज सवेरे
कभी सूरज निकलने के पहले
झौहा में फेंकती कूड़े,
फिर धीरे- धीरे- धीरे
भरते चले जाते सारे घूरे।
जब लोग पास से गुजरते
तो नाक-भौं सिकोड़ते
यह देख घूरा सोचता-
ये कैसा विचित्र जमाना है
जो गन्दगी का बोझ ढोता है
उसे ही घिन दृष्टि से देखता है?
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
( साहित्य वाचस्पति )
भारत भूषण सम्मान प्राप्त
हरफनमौला साहित्य लेखक।