..... मैं हिजड़ा हूं
था कभी मर्द मैं, पर आज मैं हिजड़ा हूं,
था कभी मुकाबले में, पर आज मैं पिछड़ा हूं।
गिला नहीं इस बात से कि आज मैं क्या हूं,
था कभी मैं भी अर्जुन — पर आज ब्रिहनलला हूं।
जो झुकता नहीं था कभी हालात के आगे,
आज मजबूरी ने लाकर रखा मुझे साए में।
जिस जुबां से बोलता था हक़ की बात मैं,
अब वही जुबां खामोश है — बेबात मैं।
मजबूरी ने वो सब छीना जो मेरा था,
मुझे जिंदा रखा — मगर जैसे मरा था।
न पैसे रहे, न इज़्ज़त की रोशनी,
बस बची आंखों में शर्म की नमी।
ज़माना पूछे — “कहां गया तेरा गुरूर?”
कैसे बताऊं — मजबूरी ने बना दिया मुझे मजबूर।
मैं जो था शेर, अब साया हूं थका-हारा,
जिसे खुद पे ना हो यक़ीन — वो क्या जीते दोबारा?
ज़माना मुझपे रहम न कर — अभी मैं हारा नहीं,
ये बात और है — कभी भी मैं जीता नहीं।
तू सोचता है कि अब मैं बुझ गया हूं,
हां, मगर राख के नीचे अंगारा हूं।
जो कहते हैं — “अब तू मर्द नहीं, हिजड़ा है”,
उन्हें क्या खबर — मर्द बनकर भी मैं कितना बिखरा है।
हिजड़ा हूं अगर, तो सिर्फ हालात की मार से,
वरना जज़्बा आज भी बाकी है हर वार से।
मजबूरी ने मेरी रीढ़ झुका दी है,
पर मेरी रूह अब भी बगावत सिखा दी है।
जिस दिन उठ खड़ा हुआ मैं फिर से,
देखना, ज़मीन कांपेगी मेरे सिर उठाने से।
था जो ठोकरें मेरी हिम्मत को तोड़ने वाली,
अब वही पत्थर मेरी नींव बनेंगे काली।
जो आज मुझे हिजड़ा समझते हैं —
कल मेरी खामोशी को इंक़लाब कहेंगे।
मैं मर्द हूं — और मर्द ही रहूंगा,
ये वक़्त का फेर है, हारा नहीं झुकूंगा।
जो मजबूरी ने छीना है —
वो मैं लौटाऊंगा, गरज से चीखकर कहूंगा —
“था कभी मर्द मैं, पर आज मैं हिजड़ा हूं —
मगर जोश से भरकर, कल फिर से शेर बनूंगा!”
✍️✍️✍️✍️✍️ महेश ओझा