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20 Apr 2025 · 8 min read

सपनों से जब निकले हम ( समीक्षा )

समीक्ष्य कृति: सपनों से जब निकले हम (ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार : सोनरूपा विशाल
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण: प्रथम (2024)
पृष्ठ: 112
मूल्य : ₹299 ( सजिल्द)
सपनों से जब निकले हम : अनुभूतियों ,संवेदनाओं और यथार्थ की त्रिवेणी
प्रिय राहुल शिवाय जी समय-समय पर मुझे ऐसी कृतियों से रूबरू कराते रहते हैं जो समकालीन साहित्य जगत में प्रकाशन के साथ ही एक लोकप्रिय मुकाम हासिल करने में सक्षम होती हैं। ऐसी ही एक कृति- ‘जब सपनों से निकले हम’ उन्होंने अभी कुछ दिन पूर्व मुझे प्रेषित की है। इस कृति में छोटी एवं बड़ी बह्र की कुल 88 ग़ज़लें है जो अपने तेवर और भाव-भूमि के कारण बरबस ही पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम हैं। यह सोनरूपा विशाल जी का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है। इससे पूर्व आपका ‘लिखना जरूरी है पर’ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है। सोनरूपा विशाल जी सुप्रसिद्ध कवि डाॅ उर्मिलेश जी की सुपुत्री हैं, उन्हें साहित्यिक परिवेश एवं संस्कार अपने पिता जी से विरासत में मिले हैं। मैं यह मानता हूँ कि साहित्यिक परिवेश और संस्कार लेखन में सहायक कारकों की भूमिका निभा सकते हैं पर किसी को कवि नहीं बना सकते। इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति के अंदर वह संवेदना एवं अनुभूति हो जो अपने समय को आत्मसात कर काव्य रूप में प्रस्तुत कर सके। सोनरूपा विशाल जी की ग़ज़लों से गुज़रते हुए यह महसूस होता है कि उन्होंने अपने समय को बहुत नजदीक से देखा और परखा है तभी तो उनकी ग़ज़लों में उसकी अनुगूँज यथार्थ के रूप में सुनाई देती है।
एक सजग और राष्ट्रप्रेमी नागरिक के नाते मातृभूमि एवं माँ भारती के सैनिकों के प्रति अगाध श्रद्धा और सम्मान का भाव होना स्वाभाविक है। मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रयाण करते वीर सैनिकों पदचाप शाइरा को एक क्रांतिकारी गीत की भाँति प्रतीत होती है। जब एक सैनिक अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है तो उसके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है फिर भी देशप्रेम का जज़्बा लोगों के दिल में हिलोरें मारता रहता है।
माँग सूनी, गोद खाली,कह रही टूटी छड़ी,
देश से बढ़कर न समझी हमने कोई प्रीत है। ( पृष्ठ 21 )
सामाजिक विडंबना का जो चित्र सोनरूपा जी के द्वारा खींचा गया है वह मार्मिकता से परिपूर्ण विरोधाभास दर्शाता है। लोगों से किसी की भी तरक्की तथा आगे बढ़ना सहन नहीं होता। लोग ‘मुँह में राम बगल में छुरी’ वाली कहावत चरितार्थ करते हुए दिखाई देते हैं। सामने से वाहवाही करते हैं, तरक्की पर खुशी जाहिर करते हैं ,पर अंदर ही अंदर कुढ़ते हैं। इतना ही नहीं, समाज दिखावटी जीवन जीने का अभ्यस्त हो चुका है। जीते जी, जब मदद की आवश्यकता होती है तब लोग मुँह फेर लेते हैं और जब व्यक्ति कष्टों और कठिनाइयों को झेलते हुए, उनसे लड़ते हुए दम तोड़ देता है तो लोग घड़ियाली आँसू बहाते हैं। तस्वीर में मढ़कर दीवार पर टाँग देना या फिर समाधि पर फूल-माला चढ़ाना अपने को और समाज को धोखे में रखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। आदर और सम्मान तो वह है जो व्यक्ति के जीवित रहते हुए उसके सहायतार्थ जरूरी कदम उठाकर किया जाए।
ज़रा सी सीढ़ियाँ क्या चढ़ रहे हैं।
उन्हें दुख है कि कितना बढ़ रहे हैं।
× × ×
हमारे हाल से ही बेख़बर थे,
हमें तस्वीर में जो मढ़ रहे हैं। ( पृष्ठ 51)
दुख और संकट की घड़ी में जब हमें उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता, हिम्मत जवाब देने लगती है तो बरबस ही व्यक्ति निराशा की उस घड़ी में बेचैन हो उठता है और उसकी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है। ऐसे में हर व्यक्ति यह चाहता है कि कोई तो ऐसा अपना सामने आए जो उसे ढाढस बँधाकर समझाने का प्रयास करे कि रोना समस्या का समाधान नहीं होता। हाँ, इतना अवश्य है कि रोने-धोने से व्यक्ति का अपना ही नुकसान होता है। सोनरूपा जी का इस ग़ज़ल का अगला शे’र दृढ़ता और हृदय की सात्विकता का स्पष्ट संकेत देता है। कई बार जीवन में ऐसी भी परिस्थितियाँ आती हैं जब हम लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए समस्याओं से घिर जाते हैं लेकिन हमारा मन हार मानने के लिए तैयार नहीं होता। हमने जो रास्ता चुना होता है, बस वही साध्य की प्राप्ति का अंतिम उपाय प्रतीत होता है। सच्चाई और ईमानदारी का मार्ग एक ऐसा ही मार्ग है।
काश कोई ये मुझसे कहने वाला हो,
रोने से कमज़ोर निगाहें होती हैं।
जिन पर ठहरे रहने का मन करता है,
कुछ राहें ऐसी भी राहें होती हैं। ( पृष्ठ 53)
सच्चाई के रास्ते पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। निश्चित रूप से सच बोलने से एक आत्मिक शांति मिलती है। सत्यं ब्रूयात प्रियम् ब्रूयात हमें सिखाया जाता है। सत्यमेव जयते हमारा ध्येय वाक्य है पर समाज में जिस तरह झूठ का बोलबाला है उससे ख़तरा भी कम नहीं होता। हम सब इंसान हैं इसलिए फ़िक्र होना स्वाभाविक है। अपनी और अपने परिजनों की जान की कीमत चुकानी पड़ जाती है कई बार सच बोलने पर। बहुत ही सहजता के खुशी और डर के भावों को उकेरने की कला काबिलेगौर है।
फ़िक्र सुकूँ दोनों हैं साथ,
हमने जब सच बोला है। ( पृष्ठ 54)
अपने पास एक छत हो जिसके नीचे सुकून और चैन के साथ व्यक्ति अपनी ज़िंदगी गुज़ार सके, यह सपना हर उस व्यक्ति का होता है । जिसके पास सिर छिपाने के लिए छत नहीं है वह एक छत की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए परिवार के मुखिया के नाते किन समस्याओं का सामना करता है इस यथार्थ को बहुत ही मार्मिकता के साथ निम्न शे’र में व्यक्त किया गया है। इस तरह की अभिव्यक्ति के लिए समाज और लोगों पर पैनी नज़र के साथ चिंतन की आवश्यकता होती है।
एक छत की हसीन हसरत में,
घर की बुनियाद कर लिया ख़ुद को। ( पृष्ठ 57)
शाइर का निम्नलिखित शे’र बहुत मार्मिक एवं इंसानियत से जुड़ा हुआ है। समय का मुहावरा गढ़ने की सोनरूपा जी की क्षमता को भी दर्शाता है। किसी भी कवि या शाइर की यह खूबी होती है कि वह सामान्य सी बात को जब अपनी कविता विषय बनाए तो वह विशिष्ट रूप धारण कर ले। हमारी दार्शनिक मान्यता के अनुसार जीव,जगत और परमात्मा ये तीन तत्त्व ऐसे हैं जिनके बिना ब्रह्मांड की कल्पना ही नहीं की जा सकती फिर भी यदि शाइरा यह कामना करती है कि ख़ुदा की पहरेदारी कभी समाप्त न हो तो यह देश और समाज के उनके कंसर्न और संवेदनशीलता को दिखाता है।
थोड़ी हसरत तारी रहती है इंसानी फ़ितरत पर,
काश! ख़ुदा की इंसानों पर पहरेदारी ख़त्म न हो। ( पृष्ठ 65)
हमारा समाज बहुरंगी है। यहाँ पर किसी को कार का मालिक बनकर और उसकी सवारी करके खुशी मिलती है तो एक वर्ग ऐसा भी है जिसे कार को धोकर और उसकी साफ-सफाई करके खुशी मिलती है। हमारे समाज में वर्ग वैषम्य का यह विद्रूप चेहरा है जिसे सोनरूपा जी ने सामने रखा है।
हो गयीं हासिल उसे भी रोटियाँ कुछ,
मुफ़लिसी को मिल गयी जो कार धोकर। ( पृष्ठ 67)

घर के बड़े-बुजुर्ग सदैव से हमारे समाज में आदरणीय और सम्माननीय रहे हैं किंतु समय के साथ इस मान्यता पर धूल की ऐसी पर्तें चढ़ रही हैं कि हमें अपना सुनहरा अतीत दिखाई ही नहीं देता। घर के बड़े-बुजुर्गों के प्रति हमारा नज़रिया संवेदनहीन होता जा रहा है। वे एकाकी जीवन जीने के लिए विवश हैं। मरता क्या न करता वाली कहावत निम्नलिखित शे’र के विषय में चरितार्थ होती दिखाई देती है। यदि परिवार के सदस्य उनके साथ समय व्यतीत करें उनके साथ सुख-दुख साझा करें तो उनका समय आसानी से कट जाता है। परंतु जब ऐसा नहीं होता तो वे विवशता वश अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए मंदिर जाकर भजन-कीर्तन में अपना समय व्यतीत करते हैं। यह स्थिति अत्यंत चिंतनीय है।
भजन गाते दिखे कुछ कंठ बूढ़े आज मंदिर में,
अकेलापन कभी यूँ भी बुज़ुर्गों ने मिटाया था। ( पृष्ठ 73)
आजकल रिश्ते बहुत ही जटिल हो गए हैं। सहज-सरल दिल से रिश्तों को निभाना कठिन-सा हो गया है। सोनरूपा जी को यह बात बखूबी पता है। इसीलिए उन्होंने अपने शे’र में उन लोगों के हार जाने की बात की है जो रिश्तों में चाल चलने में माहिर नहीं होते। वैसे रिश्तों में कुटिलता सबके बस की बात भी नहीं है।
इतना ही नहीं, सोनरूपा जी अपनी इसी ग़ज़ल के अगले शे’र में लोगों जीवन में मान-सम्मान प्राप्त करने और आगे बढ़ने का सच्चा मूलमंत्र सुझाया है। शाइरा का मानना है कि आप यह चाहते हैं कि दुनिया आपकी कद्र करे तो पहले अपने आपको दीन-हीन समझता बंद करो। जब व्यक्ति स्वयं अपने आपको दूसरों से कमतर मानेगा ,उसमें आत्म-विश्वास का अभाव होगा तो दुनिया कैसे उसे महत्वपूर्ण मानेगी।
चाल नहीं चल पाते कोई रिश्तों में,
इसीलिए तो अक्सर हारा करते हो।
दुनिया कैसे क़द्र करेगी बतलाओ,
जब तुम ख़ुद को ही कम आँका करते हो। ( पृष्ठ 84)
व्यक्ति का आचार-व्यवहार तथा बातचीत करने तरीका न केवल उसे मान-सम्मान और सफलता दिलाता है अपितु लोगों का उस व्यक्ति को देखने का नज़रिया भी बदल जाता है। लोग उस व्यक्ति के प्रति सदैव सदाशयता रखते है जिसका बातचीत का लहजा सम्मानप्रद होता है।
अक्सर लोग जीवन में आने वाली परेशानियों, कठिनाइयों एवं दुखों से निराश हो जाते हैं। कई बार व्यक्ति निराशा के गर्त में ऐसे चला जाता है कि जीवन जीने का हौसला ही खो देता है। ऐसे लोगों को सलाह देते हुए सोनरूपा जी ने बताया है कि जो लोग जीवन जीने का हुनर सीख जाते हैं उन्हें कोई गिला नहीं होता। ज़िंदगी को वही लोग कोसते हैं जिन्हें जीवन जीने की कला नहीं आती।
सबसे ख्वाहिश अगर दुआ की है,
अपना लहजा सँभाल कर रखिए।
× ×
ज़िंदगी से गिला नहीं होगा,
इसको जीने का बस हुनर रखिए। ( पृष्ठ 87)

मेहनत किसी की और उसका श्रेय कोई और ले ,यह बहुत ही आम बात है। सोनरूपा जी ने प्रतीक के माध्यम से इस बात को बहुत ही सहजता से बताया है। वृंतों पर इठलाते हुए फूल इस बात को फूल जाते हैं कि उनकी इस खूबसूरती के पीछे पौधे का त्याग और बलिदान शामिल है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि हम जीवन को उलझनों को सुलझाते हुए स्वयं उलझ जाते हैं। जीवन की इस सच्चाई को सहज रूप में सीनरूपा जी के द्वारा अपने दूसरे शे’र में उकेरा है।
मेहनत तो है पौधे की,
फूलों का इतराना है।
जीवन को सुलझाना ही,
जीवन को उलझाना है। ( पृष्ठ 90)
आज का व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे पागल है। वह धर्म-अधर्म और पाप-पुण्य की अवधारणाओं को ताक पर रखकर आगे बढ़ने में लगा हुआ है। ऐसे लोगों के लिए निम्नलिखित शे’र एक मंत्र सरीखा है। जमीर को बेचकर या स्वाभिमान को गिरवी रखकर इकट्ठा की गई दौलत किसी काम की नहीं होती। जब हम अपने स्वाभिमान से समझौता किए बिना दौलत-शोहरत हासिल करते हैं, वही सच्ची कमाई होती है।
दौलत, शोहरत अच्छी है,
जब सिर पर दस्तार भी हो। ( पृष्ठ 94)
वक़्त की मार से बचना किसी के लिए भी संभव नहीं होता । हाँ ,इतना अवश्य होता है कि यदि हम समय के साथ अपने अंदर बदलाव करते रहें तो समय की मार का प्रभाव कम हो जाता है। इसलिए यह आवश्यक होता है कि हम अपने आँख, नाक, कान खुले रखें और समय की मांग के अनुसार अपने में बदलाव करते रहें।
दर ही खुलता नहीं है जिस घर का,
वक़्त खंडहर उसे बना देगा। ( पृष्ठ 103)
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ‘सपनों से जब निकले हम’ की ग़ज़लें जीवन के विविध पक्षों को रूपायित करती हुई एक सकारात्मक सोच के साथ हमें अपने समय के यथार्थ से न केवल परिचित कराती हैं अपितु सामाजिक विद्रूपताओं और विसंगतियों को भी उजागर करती हैं। बेलौस और बेबापन से युक्त संग्रह की सभी ग़ज़लों की भाषा सहज और सरल है। ग़ज़ल को भाषा के बनावटीपन की चादर में ढककर महामंडित करने का प्रयास नहीं किया गया है। हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में किए जाने वाले इस अभिनव प्रयास में सोनरूपा विशाल जी का योगदान एक आहुति के रूप में निश्चित रूप से समय रेखांकित करेगा।
इस पठनीय एवं संग्रहणीय ग़ज़ल कृति के सोनरूपा विशाल को अशेष शुभकामनाएँ!
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय

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