'समझौता'
एक बार अनायास
मखमली आशाओं के साथ
माँ ने मेरी गोद में डाली..
एक मुलायम सी साड़ी..
मैंने सीखा
बिसराना..
हर परत के साथ,
असंख्य कुंठित
वैचारिक आघात!
सँभालने लगी..
अंजान जिम्मेदारियों का बोझ
सिर ढापने लगा
मेरा अचंभित अनुभव-कोष!
सहेजती रही मैं
रिश्ते और कमरबंध
ढकती रही
तन-मन और अंर्तद्वंद!
नव-उम्र की कटीली चुभन
और
असुविधाओं की कोमल घुटन ने
मजबूर किया
बदलने को
पुरानी रीतियों को!
चमत्कृत रूप लिये सँवरने लगा
मेरा हर प्रयास!
सहज होती गई मैं
साड़ी के साथ!
निपुण हो गई मैं
सपनों की रंगबिरंगी लड़ियों से
उदासी को बाँधने में!
साड़ी के हर रूप को साधने में!
मेरी साड़ी के संग-संग,
अनंत इच्छाओं का कलरव
लहराने लगा
खुले गगन में..
खिलखिलाने लगीं खुशियाॅं
मेरी कल्पना के शिशु के साथ
मेरे सदन में ।
रश्मि ‘लहर’
लखनऊ