महफूज आलम की स्कूली शिक्षा
महफूज आलम की स्कूली शिक्षा
रचनाकार: बाबिया खातून
यह एक जीवन परिचय है, जो मेरे पिता महफूज आलम के जीवन पर आधारित है। यह उनके द्वारा बताई गई सारी चीजों पर आधारित है, जिसे मैंने उनके आत्मकथा को अपने शब्दों में व्यक्त किया है। यह एक जीवनी है, जिसे मैंने संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है, जो उनके जीवन के अनुभवों और संघर्षों को दर्शाती है।
महफूज आलम की स्कूली शिक्षा के समय की बात है, तब की है जब महफूज आलम लगभग छह साल के थे। वह बहुत ही कठिनाइयों का सामना करते थे। उन्हें अपनी स्कूल की पढ़ाई करने के लिए स्लेट और चौक ले जाना पड़ता था, लेकिन वह बहुत ही परेशान रहते थे।
उनकी माता, जुबदी, यानी की जुबैदा खातून, उनसे धान कटवाती और पिसवाती रहती थी। यह बात अंदर ही अंदर महफूज आलम को बुरी लगती थी और उनसे भोर में चार बजे ही धान कटवाया और पिसवाया जाने के लिए तुरंत भेज देती थी। घर के सारे कामों के लिए वह बड़े बेटे को ही हमेशा बोलती थी और सुबह के चार बजे ही उन्हें जल्दी-जल्दी उठाकर धान कटवाने पिसवाने भेज देती थी। उन्हें पढ़ने का मौका भी मुश्किल से मिल पाता था।
महफूज आलम बहुत ही मेहनत करते थे। जब स्कूल जाना रहता था, तो एक नदी रहती थी, उसको पार करके जाने वाले रहते थे। वह अपने कपड़ों को गमछे के रूप में बाँधकर, नदी पार करते थे। नदी पार करने के बाद, फिर से वह कपड़े पहनते थे।
उनका बस्ता, स्लेट और चौक रहता था, उनको अपने सर पर रखकर जाते थे। स्कूल में, वह नीचे बैठा करते थे, क्योंकि उस समय सीट जैसी चीजें नहीं थीं। महफूज आलम पढ़ने में अच्छे थे और किसी से बात भी नहीं करते थे।
वह सारी चीजें सोचते रहते थे, कैसे करना है, कैसे नहीं करना है। फिर आते भी वैसे ही थे, जैसे की जाते थे। फिर से नदी पार करना रहता था, तो वह फिर से सारी चीजें अपने सर पर रखकर, नदी पार करते हुए घर जाते थे।
बहुत ही दिक्कत उन्हें होता था, लेकिन हाँ, ये बात है कि उन्हें तैरना आता था और वह तैरने में भी माहिर थे। अब तो वह बूढ़े हो गए हैं, अब नहीं तैर सकते हैं। अब उनकी आँखें भी की रौशनी भी चली गई है और वह एक किडनी पेशेंट भी हैं।
लेकिन अभी भी उनमें हौसला और जज्बा पहले की तरह ही जवान लड़कों की तरह है।