दोहा पंचक. . . . . नीड़
दोहा पंचक. . . . . नीड़
बस तिनकों का घोंसला , अपना था संसार ।
किसने काटी टहनियाँ , बिखर गया घर बार ।।
हरे पेड़ को काटने , आऐ ठेकेदार ।
क्या चिन्ता किसका गिरा , नीड़ बीच बाजार ।।
कटे पेड़ को देखने, हुई इकट्ठी भीड़ ।
देख विहग रोने लगा, अपना उजड़ा नीड़ ।।
हरे पेड़ को काट कर, पाऐ ढेरों नोट ।
करें विलाप जो दृश्य पर, उनके मन में खोट ।।
खामोशी से देखता, पंछी टूटा नीड़ ।
सभी तमाशा देखते, किसने समझी पीड़ ।।
सुशील सरना / 6-4-25