अन्तर पराग
///अन्तर पराग///
बन गया पराग वह विराग।।
अवनी के प्राणों का स्पंदन,
उर वसुधा का प्याला निर्मल।
बहता झर झर स्रावित होकर,
संचित वे जीवन के कलकल।।
विराट व्यथा अरु प्रणय सुहाग।
बन गया…. ।।
अविज्ञात स्वप्न मय संसार,
दे सकेगा क्या विस्तार ।
उर बंधन के गीत सजीले,
दे सकेंगे प्रेरणा बारंबार ।।
मेरे चिर विटप कृतराग ।
बन गया ….।।
चंचल चित का वह माली,
ले गया क्या पुष्प तोड़ ।
देख तू अनुरक्षक उर के ,
कोई सके ना उसे मरोड़ ।।
अपनों से अपनों का त्याग?।
बन गया….।।
आत्मविरह अरु सुधाधार,
व्यथित मन व्यथा अपार ।
झरते जाता विकल अन्तर,
असीम गगन शून्य विकार ।।
उद्भव पाता अन्तर अनुराग।
बन गया पराग वह विराग।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)