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27 Sep 2021 · 1 min read

कुछ पंक्तियाँ

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मेरा जीवन है पर,कोई रंग नहीं है।
मैं हूँ, पर, आत्मा मेरे संग नहीं है।
तुम्हें जीतकर क्योंकि, पराजित हूँ।
तुम्हारा सुख छीनने को शापित हूँ।
तुम्हें जीतना उपलब्धि या स्खलन।
‘मैं’ और आत्मा के युद्ध का है क्षण।
तुम्हारे आत्मसम्मान का करके हनन।
क्या होता नहीं है मेरा आत्म-क्षरण?
संघर्ष में अकेला और पराजय सा डरा।
जीतने को आतुर सारा विश्व,’मैं’ खड़ा।
कर्ण का कुंती को वचन और युद्ध का हठ।
वैसे प्रण को लेकर सोचता हूँ लूँगा ही लड़।
युद्धोपरांत खण्डित आत्मा से मैं तो डरूंगा।
क्या सच में दुर्योधन का वध ‘मैं’ ही करूंगा!
तुम्हारा अधिकार था हर्ष के साथ जीना।
‘मैं’ ने “गर्व महान है” बताने इसे छीना।
हर रण भौतिक सुखों की है छीना-झपटी।
अध्यात्म तक बना है व्यभिचारी व कपटी।
सृष्टि तर्क,तथ्य,विवेक-युक्त लाखों वर्ष से।
घिरा हुआ भय से, कभी जिया नहीं हर्ष से।
जीव है कभी अशक्त कभी अत्यंत बलशाली।
युद्ध से बचने या करने की करता है जुगाली।
मनुष्य होना, होता है एक परिभाषित कर्तव्य।
बनाता रहा है यही इसके अस्तित्व को भव्य।
पशु का अधिकार है वह जिए,जीने दे या नहीं।
मनुष्य पशु है या मनुष्य तय होना है अभी।
मृत्यु तो जीवित रहता रहा है हर ही जीवन में।
हर मृत्यु को मृत्यु तक जीवित होना है तन में।
संयोग है रसायनों का इस जीवन का स्वरूप।
हवा,पानी,माटी,उर्जा,व व्योम देता है ऐसा रूप।
जीवन इतना अहंकारी और बदमिजाज क्यों है?
और इतना व्यक्तिगत तथा रहस्यमय क्यों है?
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