खामोशी तेरी गूंजती है, घर की सूनी दीवारों में,

खामोशी तेरी गूंजती है, घर की सूनी दीवारों में,
हर रंग फीका लगता है, रंगों के त्योहारों में।
खुशबुएँ तेरी आती नहीं, तेरे कपड़ों के मीनारों में,
ढूंढती है तुम्हें आँखें, अब भ्रम के बाजारों में।
तेरे स्नेह का जलता दीया, बुझ गया अंधियारों में,
सर से साया तेरा यूँ उठा, कि तन्हा हूँ मैं चौबारों में।
उठी है कसक हर पल, तू रहा नहीं अब पुकारों में,
वो दिन अब भी सताता है, जब तू खो गया चीत्कारों में।
भटकता है ये मन जाने क्यों, खुद के हीं विचारों में,
कहीं कमी तो नहीं रह गयी, तुझे देने वाले सहारों में।
मौसम कितने बदल गए, पर ना आया सुकूं भी बहारों में,
ये जंग जिद्दी सा लगा है, आँखों की फुहारों में।
जल रही है होलिका, पर उदासीनता है व्यवहारों में,
तेरी नामौजूदगी के दर्द ने, मेरा नाम लिख दिया बंजारों में।
कहाँ ढूंढूंगी तुम्हें अब मैं, इस क्षितिज के विस्तारों में,
या ये दर्द यूँ हीं रिसता रहेगा, हृदय के दरारों में।