बीते दिन

बीते लम्हों का हिसाब ढूँढता हूँ ,
गये दिनों का सुराग ढूँढता हूँ ,
जो गुज़र गया क्यूँ लौट आता नही ,
उन हंसीं पलों का एहसास क्यूँ जाता नही ,
लगता है अभी तो यहीं था कहीं खो गया है ,
ज़ेहन में यादों के झरोखों में कहीं छुपकर सो गया है ,
दिन गुज़रता है ,शब ढलती है ,
सहर की सबा कोई पैगाम सा लाती है ,
मेहर की शु’आ’ फिर कोई आस जगाती है ,
गर्दिश-ए-दौराँ के सफ़र में ये ज़िंदगी यूँ ही गुज़रती है ,
शायद उन बीते दिनों की याद ही मुझे ज़िंदा रखती है।