दिल की आरज़ू
मिलने की तमन्ना तुमसे है न जाने कहां मुलाकाते हों,
मेरे दिल की तुम धड़कन हो, कब दिल से दिल की बातें हों।
दिन आते हैं दिन जाते हैं और वक्त गुजरता रहता है,
कब आकर बैठोगे पास मेरे , कब आपस में फिर बातें हों।
जब शाम का मंजर आता है, क्यूं दिल में उदासी छाती है,
जब दूर होती हो तुम मुझसे, फिर दिल भी कैसे रोशन हों।
रातों का एकाकीपन प्रिय तेरी यादों में गुजरता है,
धीरे से पहलू में तुम कब आओगी कब एकाकीपन दूर हो।
ख्वाबों में आकर ही सही, मेरे प्यार को मुकम्मल कर देना,
बस यही आरज़ू शेष है दिल की, मुरादें मेरी कब पूरी हों।
इति।
इंजी संजय श्रीवास्तव
बालाघाट मध्यप्रदेश।