“मथुरा, तीन लोक ते न्यारी..!”

यमुना तीरे बस्यो नगर इकु,
जनमे जहाँ कन्हाई।
सजे घाट, मन्दिर, पावन सब,
सोभा बरनि न जाई।।
तीरथ बौद्ध, जैन, हिन्दू कौ,
जाऊँ फिरि-फिरि वारी।
प्रेम और सौहार्द पड़त,
दुर्भाव, द्वैष पर भारी।
रास रचायो गोपिन कै सँग,
पुलकित सब नर-नारी।
एक भयीं सब खेलत होरी,
कोउ गोरी कोउ कारी।।
धन्य भाग, जिन्ह जाइ बसे,
कँह किस्मत अइस हमारी।
सेवा करि कदंब की, निशि-दिन,
पावत, पुन्य हज़ारी।।
मथुरा की महिमा, अप्रतिम,
लेखनी हमारी हारी।
बरनैँ आशादास कहाँ तक,
तीन लोक ते न्यारी..!