अद्वैत
भटकता मन
ध्यानस्थ शरीर
भीषण उथल पुथल
दुःख का सृजन
शान्ति की चाह
तीर्थों की राह
मंदिर में दर्शन
गंगा में तर्पण
गोदावरी के तट
शिप्रा के घाट
व्याकुलता अनंत
मूल्यों का अंत
हो रहा है नित्य
मानवता का ह्रास
जीवन का उल्लास
कर्मों का खेल
स्वार्थ का मेल
थम जाओ अब
साध लो मन
गतिमान करो तन
सुख दुःख की
माया को
त्याग दो छाया को
नाम गाँव छोड़ दो
रास्तों को मोड़ दो
जान लो स्वयं को
संतों की वाणी में
ज्ञान बहुत है
मगर
प्यास तुम्हें है लगी
दूसरे भड़काएंगे
व्यर्थ में घुमाएंगें
बूंद बूंद तरसायेगें
भीतर जो झरना बहता है
बंद नयन खोज लो
पाठशाला जीवन की
यही तो सिखाती है
तू ही सवार है
तू ही सारथी है।