"अक़ीदा" ग़ज़ल
ज़ीस्त का दिल से नज़ारा कर लिया,
रँजोग़म, हम ने, गवारा कर लिया।।
फँस गई कश्ती, तलातुम मेँ थी जब,
बीच मझधारे, कनारा कर लिया।
जब लगा, जीना हुआ, दूभर मिरा,
उसके अश्क़ों का, सहारा कर लिया।
तपिश-ए-सहरा का होगा क्या असर,
हमने दामन को, शरारा कर लिया।
पढ़ सका ना दिल के जो मज़मून को,
उफ़, उसी को, सबसे प्यारा कर लिया।
कुछ शनासाई, तो उससे, थी मगर,
क्यूँ अक़ीदा, उस पे सारा कर लिया।
पूछते सब, किस तरह ज़िन्दा हूँ मैं,
उसकी यादों से, गुज़ारा कर लिया।
जब भी “आशा” मिलन की उर मेँ जगी,
उसने रुख़सत का, इशारा कर लिया।
शनासाई # परिचय, acquittance