कहा था न, एक रोज सब आम हो जाता है!

कहा था न, एक रोज सब आम हो जाता है!
सारी ख्वाइशें सारा प्रेम. सारी यादें एक रोज संदूक में सदैव के लिए बंद हो जाती है!
और जीवन जीने के लिए बचता है सिर्फ खाली दिन, सुनी रातें, खामोश लफ्ज़ और बेबस शरीर, काश उस रोज तुमने मेरे इस अनुभव को स्वीकारा होता, तो आज एक और शरीर जीवित लाश न होता, मैंने तुम्हें और तुमने मुझे इतनी शिद्दत से न खोया होता!
मानता हूं प्रेम परिभाषित नहीं है, लेकिन समर्पण से किसी को भी जीता जा सकता है!
– बेकसूर लेखक